हिन्दी

फ़िल्म 'पैराडाइज़' पर निर्देशक प्रसन्ना विथानागे की डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस के साथ चर्चा

यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख का है Film director Prasanna Vithanage discusses Paradise with the WSWS जो मूलतः को प्रकाशित हुआ था I

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर आए श्रीलंकाई फ़िल्म निर्देशक प्रसन्ना विथानागे ने अपनी फ़िल्म पैराडाइज़ को लेकर वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट के साथ बात की। इस फ़िल्म की डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस की समीक्षा यहां उपलब्ध है।

प्रसन्ना विथानागे

वयोवृद्ध स्वतंत्र फ़िल्म निर्माता विथानागे ने अपनी पहली फ़ीचर फ़िल्म 'आइस ऑन फॉयर' को 1992 में बनाया था और उसके बाद से उन्होंने 10 अन्य फ़ीचर फ़िल्में और डॉक्यूमेंट्री बनाई हैं। इनमें 'वॉल्स विदिन', 'डेथ ऑन फ़ुल मून', 'अगस्त सन', 'विद यू विदाउट यू' और 'गाड़ी' शामिल हैं। विथानागे के साथ हुई बातचीत का संपादित अंश नीचे दिया जा रहा है।

रिचर्ड फिलिप्सः समय देने के लिए धन्यवाद और 'पैराडाइज़' पर आपको मुबारकबाद। यह एक दिचलस्प काम है और श्रीलंका के बारे में बहुत कुछ बताता है, इसकी पृष्ठभूमि प्रदर्शनों के दौरान की है जिसके बाद राजपक्षे सरकार गिर गई थी। क्या आप समझा सकते हैं कि आपने ये क्यों बनाया?

प्रसन्ना विथानागेः हां। गोटाबाया राजपक्षे को सत्ता से बाहर करने की व्यापक कार्रवाई 2022 में पहली बार शुरू हुई क्योंकि किसान को अपनी फसलों के लिए खाद नहीं मिल पा रही थी। इसके बाद सरकार ने दिवालिया होने की घोषणा कर दी, जिससे पता चला कि सेंट्रल बैंक के पास विदेशी मुद्रा का टोटा पड़ गया है।

लोग बिना किसी वास्तविक नेतृत्व के ही सड़कों पर उतर पड़े और इसी वजह से यह आंदोलन असफल हो गया। दिवालिया होने की घोषणा के ठीक पहले ही लोगों ने उसी साल 31 मार्च को राशन, गैस, ईंधन और बिजली कटौती को ख़त्म करने की मांग को लेकर राष्ट्रपति भवन को घेर लिया।

बहुत कम ही लोग मानते थे कि इतने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन होंगे। श्रीलंकाई मध्य वर्ग को लगता था कि वर्ग संघर्ष का समय जा चुका है। यह बीते ज़माने की बात थी और दोबारा ऐसा नहीं होगा क्योंकि हर किसी की स्थिति सुधर रही थी, उन्हें उपभोक्ता समाज और तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था से लाभ मिल रहा था। ऐसी ही कुछ धारणा थी।

साल 2019 में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे राष्ट्रीय सुरक्षा के वादे के साथ सत्ता में आए और उनका दावा था कि उन्होंने सिंघली बौद्ध वोटरों की बदौलत बहुमत हासिल किया था और उन्हीं लोगों के लिए वो काम करेंगे। राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के खोखले विचारों और ढेरों झूठे वायदे किए गए, इसलिए जब सुपरमार्केट्स अचानक सामानों से खाली हो गए और दुकानों पर कुछ नहीं मिल रहा था, तो हर कोई सड़क पर उतरने लगा।

20 अप्रैल, 2022 को कोलंबो में प्रदर्शन करते हुये, सरकारी मज़दूरों

आम लोग भारी परेशानियों से गुजर रहे थे और इसलिए विभिन्न ग्रुप कोलंबो के गाले फ़ेस ग्रीन पर इकट्ठा होना शुरू हो गए और वहां से 'गोटा गो होम' का आंदोलन पैदा हुआ।

सार्वजनिक क्षेत्रों के कर्मचारी कोलंबो में 20 अप्रैल 2022 को प्रदर्शन करते हुए।

इसमें बहुत से तत्व शामिल थे लेकिन सबसे बड़ी बात थी कि इसके आयोजनकर्ता किसी किस्म का क्रांतिकारी नेतृत्व नहीं चाहते थे। वे मार्क्सवादियों या किसी भी तरह की पार्टी पॉलिटिक्स से जुड़ना नहीं चाहते थे या यहां तक कि किसी वैकल्पिक राजनीतिक कार्यक्रम से भी। उनका सीधा तर्क था कि अगर वे राष्ट्रपति को सत्ता से बाहर कर देते हैं तो हर चीज़ दुरुस्त हो जाएगी। मैंने जल्द ही महसूस किया कि हालांकि वास्तविक चिंताओं को लेकर यह एक वास्तविक संघर्ष है, लेकिन यह एक अव्यवस्थित जन संघर्ष है और जल्द ही बिखर जाएगा।

अंततः सत्तारूढ़ वर्ग ने राजपक्षे के सत्ता से बेदख़ल होने के तुरंत बाद रानिल विक्रमसिंघे को पहले प्रधानमंत्री के तौर पर और फिर बाद में राष्ट्रपति के तौर पर नियुक्त कर दिया और फिर हालात पर अपनी पकड़ को फिर से मज़बूत कर लिया। 2022 में यह हमारे लिए एक बड़ा राजनीतिक सबक था- जिसके बारे में लोग आज भी सोच रहे हैं, लेकिन पहले आपके मूल सवाल पर आते हैं।

मैंने व्यक्तिगत रूप से इन प्रदर्शनों में हिस्सा लिया और अन्य कलाकारों के साथ मिलकर गोटाबाया राजपक्षे को बाहर किए जाने की मांग को लेकर मार्च किया और सोचता रहा कि इस अनुभव के बारे में मैं क्या कह सकता हूं।

एक कलाकार के रूप में मैं कुछ कहना चाहता था और इस अभूतपूर्व हालात के सतह के नीचे जो कुछ चल रहा था उसके बारे में कुछ कहना चाहता था, इससे जूझना चाहता था और इसे सबसे सामने खोलना चाहता था। इसलिए, मैंने दो लोगों की कहानी को बनाई, जो श्रीलंका आए थे लेकिन उनका इस देश से कोई लेना देना नहीं था और जो कुछ हो रहा था उससे उनका जुड़ाव नहीं था।

मैं उनकी मध्यवर्गीय मानसिकता से पर्दा हटाना चाहता था, लेकिन जैसा कि डेविड वॉल्श अक्सर कहते हैं कि आप तबतक लोगों की ज़िंदगी के अंदर की परतें बाहर नहीं ला सकते जबतक सच्चाई के साथ सामाजिक ताने बाने और सामाजिक हालात को समझने की कोशिश नहीं करते। मेरा काम था एक तस्वीर उकेरना कि श्रीलंका में हालात उन पर कैसा असर डाल डालते हैं और ये दिखाना कि निजी कारण कैसे राजनीति से जुड़ते हैं।

राजनीतिक परिस्थिति को लेकर भी मैं कुछ कहना चाहता था। यह बहुत अहम है क्योंकि सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के कुछ सदस्य ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि पूरा आंदोलन एक तख़्तापलट की कार्रवाई है और इसके पीछे अमेरिकी दूतावास का हाथ है।

आरपीः राजपक्षे ने एक किताब लिखी है- द कांस्पिरेसी टू आउस्ट मी फ़्रॉम द प्रेसीडेंसी- और दावा किया कि यह एक तख़्तापलट था।

पीवीः हां, ये सही है। ये लोग जन आंदोलन को बदनाम करना चाहते हैं, और इससे इनकार करते हैं कि लोग उनके ख़िलाफ़ हो गए थे, कि लोगों ने खुद एक फ़ैसला लिया। इसलिए इसे ख़ारिज करना और ये दिखाना अहम है कि सरकार विरोधी जनता का प्रदर्शन हमारे समाज में वास्तविक वर्ग विभेदों यानी अमीरों और ग़रीबों के बीच विभाजन का नतीजा था- जोकि महामारी के साथ और बढ़ गया था।

यह, फ़िल्म में दिखाए गए मज़दूर वर्ग के लिए है, ख़ास तौर पर बागान मज़दूर हैं, जो मज़दूर वर्ग का सबसे उत्पीड़ित हिस्सा है। उन्हें राष्ट्रपति या आम चुनावों में तमिल नेताओं और राजनेताओं को जिताने के लिए बेतहाशा इस्तेमाल किया जाता है ताकि वे नेता सरकारी मंत्रालय की सौदेबाज़ी कर सकें।

ये कुछ चीजें रहीं जिन्हें फ़िल्म में संबोधित किया गया और इसने मुझे इन चीजों को दिखाने का मौका दिया, और मुझे उम्मीद है, इसमें लोगों के प्रतिरोध को भी दिखाने का मौका मिला।

आरपीः क्या और किसी ने भी इन घटनाओं को कलात्मक रूप से प्रस्तुत करने की कोशिश की है?

पीवीः हो सकता है कि कुछ साहित्य रचा गया हो और संभवतः कुछ डॉक्यूमेंट्री भी बनी हो और उम्मीद है कि मेरी फ़िल्म एकमात्र फ़िल्म नहीं होगी।

केसव (रोशन मैथ्यू) और अमृता (दर्शना राजेंद्रन) [Photo: Paradise]

आरपीः क्या आप उन लोगों के लिए किरदारों के बारे में कुछ और बताएंगे, जिन्होंने ये फ़िल्म नहीं देखी है। भारतीय जोड़ा, केसव और अमृता एक ख़ास धार्मिक स्थालों पर जा रहे हैं। आपने ये क्यों तय किया?

पीवीः मैंने भारत और श्रीलंका की राजनीति का बहुत क़रीब से अध्ययन किया है और हाल ही में भारत में मैंने काफ़ी समय बिताया। भारतीय मध्यवर्ग सोचता है कि उनका देश फलफूल रहा है और मानते हैं कि कुछ ही सालों में यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगा। लगातार विकास करने और सामाजिक पायदान पर ऊपर चढ़ने को लेकर जो जुनून है, उसकी कई परतें इसमें हैं।

केरल से आने वाला केसव कुछ इसी तरह का क़िरदार है। वह भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर रहा है और जैसे ही वह श्रीलंका पहुंता है उसे पता चलता है कि उसे स्क्विड गेम्स, जोकि वर्गीय विभाजन के बारे में है, का भारतीय संस्करण बनाने का कांट्रैक्ट मिल गया है।

केसव और उसकी पत्नी राम टूर (रामायण पर्यटन स्थल) के बहाने अपनी शादी की पांचवीं सालगिरह मनाने के लिए श्रीलंका जाने का फ़ैसला करते हैं। लेकिन उनका दिल और दिमाग राम टूर या सालगिरह के साथ मेल नहीं खाते। उसकी पत्नी अमृता ने शायद अपने युवा दिनों में एक उपन्यास लिखने का सपना देखा था लेकिन अब वो ब्लॉगर है। वो अपने पति की छाया में है और उस पर निर्भर है। सतह पर सबकुछ ठीक लगता है लेकिन फ़िल्म जैसे जैसे आगे बढ़ती है उनके बीच मतभेद सामने आते जाते हैं।

दूसरा क़िरदार है, मिस्टर एंड्र्यू, जो टूर गाइड है। वो इस तरह बोलता है जैसे वो भगवान राम के बारे में सबकुछ जानता है, जबकि वो कोई विशेषज्ञ नहीं है और किताब में राम की जो कहानी उसने पढ़ रखी है, उसे वो बार बार भूल जाता है। वो अराजनैतिक होने की कोशिश करता है, यानी ऐसा जिसका कोई नज़रिया नहीं है, और वो उस तरफ़ गहराई में जाना भी नहीं चाहता क्योंकि पर्यटक राम भगवान के बारे में आम तौर पर उदासीन दिखाई देते हैं। केसव हर पांच पांच मिनट पर अपना फ़ोन देखता है, यह इस बात का संकेत है कि कैसे मौजूदा पूंजीवादी समाज लगातार लोगों को, अपने जीवन में भरोसा पैदा करने या उनके करियर को फ़ायदा पहुंचाने वाले किसी प्रकार के संदेश पाने की उम्मीद और भ्रम से विचलित करता है।

यह कहानी तब घटित होती है जब भारत श्रीलंका को 200 मिलियन डॉलर कर्ज़ देने के लिए राज़ी हो जाता है और इसलिए केसव में थोड़ी अकड़ होती है। ये दिखाता है कि वो सार्जेंट बंडारा के साथ कैसे बर्ताव करता है और दोनों के खोए हुए आईपैड और मोबाइल फ़ोन को तुरंत बरामद करने के लिए किस तरह दबाव डालता है।

आरपीः बंडारा दबाव में है लेकिन वो जानता है कि क्या करना है।

सार्जेंट बंडारा (महेंद्र परेरा)। (फ़ोटोः पैराडाइज़) [Photo: Paradise ]

पीवीः हां। सार्जेंट को पता है कि क्या करना है। जब मैंने इस फ़िल्म को शूट किया तो उसमें अधिकांश लोग तमिल थे, जो एक्टर नहीं थे बल्कि बागान क्षेत्र से आते थे। उन्होंने बताया कि ये हमेशा ही होता है। पुलिस के लिए सबसे आसान शिकार होते हैं बागान क्षेत्र में लगे युवा, जिन पर वो हर चीज़ के लिए दोष मढ़ देते हैं।

कहानी का ये हिस्सा एक प्लाट का उपकरण या प्रभाव पैदा करने के लिए नहीं है, बल्कि इस इलाक़े में जो कुछ होता है, उसकी सच्चाई है।

दो महीने पहले श्रीलंका के अंग्रेज़ी अख़बार डेली मिरर ने बहुत कम समय में पुलिसिया हिरासत में संदेहास्पद मृत्यु के 25 मामलों को लेकर एक स्टोरी की थी। मैंने खुद कई मामलों का अध्ययन किया है जब संदिग्ध को मर जाने तक टॉर्चर किया गया। यह बिल्कुल तथ्य है।

इस तरह की घटना को फ़िल्म में सनसनीख़ेज़ बनाया जा सकता था लेकिन मुझे नहीं लगता कि कलाकारों को चीज़ों को बढ़ाचढ़ाकर पेश करना चाहिए। अगर आप ऐसा कुछ बढ़ा चढ़ा कर करते हैं तो यह उलटा असर डालेगा और सच्चाई से पर्दा उठाने में बाधा डालेगा। लोग कहेंगे कि यह फ़िल्म निर्माता राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित है।

आरपीः अपने दर्शकों के विवेक का सम्मान किए जाने पर भी यह एक सवालिया निशाना लगाता है।

पीवीः बिल्कुल ठीक। मैं चम्मच से खिलाने में भरोसा नहीं रखता। परतों में कहानी कहना बेहतर है और आप अपने दर्शकों को कल्पना करने की चुनौती पेश करते हैं कि वे इस बारे में सोचें। इस तरह वे अधिक जागरूक होंगे और कहानी से जुड़ेंगे।

आरपीः फ़िल्म एक दिलचस्प संवाद है जब अमृता सार्जेंट से पूछती है, ज़िंदगी की क़ीमत क्या है?

पीवीः जो कुछ हुआ उसे लेकर उसके अंदर अपराधबोध है, लेकिन, असल में, प्रदर्शन के दौरान वैसा ही सवाल कई श्रीलंकाई पूछ रहे थे। हमारी ज़िंदगी की क्या क़ीमत है?

दक्षिण में युवा लोग काम पाने के लिए इटली या किसी और देश जाने की कोशिश कर रहे थे। श्रीलंका से बाहर जाने के लिए पासपोर्ट कार्यालय के सामने लंबी क़तारें लगी हुई थीं। और क्यों? क्योंकि लोग महसूस कर रहे थे कि सिर्फ आर्थिक हालात से बचने के लिए उन्हें बाहर नहीं जाना था बल्कि उनकी ज़िंदगी का भी कोई मोल नहीं था। उनके साथ ग़ैरज़रूरी इंसान की तरह बर्ताव किया जा रहा था।

गाले फ़ेस ग्रीन पर इकट्ठा श्रीलंकाई क्यों नारे लगा रहे थे- 'हमें 225 नहीं चाहिए?'- यह श्रीलंकाई सांसदों की संख्या है। यह एक भावुक प्रतिक्रिया थी, जो इन सभी राजनेताओं को देश को लूटने के लिए निंदा करती थी, कि ये वे लोग हैं, जिनके लिए इंसानी ज़िंदगी की कोई अहमियत नहीं है।

सार्जेंट बंडारा का अमृता को जवाब होता है- एक बागान वर्कर की ज़िंदगी की क़ीमत महज एक वोट भर है और वो भी राष्ट्रपति या आम चुनावों के दौरान- यह एक तथ्यात्मक बयान है।

बागान वर्कर पहले वामपंथी लंका समा समाज पार्टी के साथ हुआ करते थे, लेकिन क्योंकि 1950 और 1960 के दशक में इसके विश्वासघात के कारण वो समर्थन बुर्जुआ तमिल अभिजातों ने अपनी ओर कर लिया, जो अब अपने संसदीय सौदेबाज़ी के लिए उन्हें इस्तेमाल करते हैं।

फ़िल्म में वर्गीय विभेद के बारे में मैं एक और बिंदु के बारे में मैं बताना चाहूंगा। मैं हमेशा से ही रॉबर्ट आल्टमैन की फ़िल्म 'गोसफ़ोर्ड पार्क' से प्रेरित रहा हूं, जोकि बहुत बारीक़ी से ब्रिटिश सत्ताधारी अभिजात वर्ग और उनके नौकरों के बीच के विभाजन की पड़ताल करती है। मैं दिखाना चाहता था कि कैसे सामाजिक ज़िंदगी के ऊंचे और नीचे के पायदान का अंतर, टूर गाइड और नौकरों के प्रति भारतीय मध्य वर्गीय जोड़े के बर्ताव में दिखता है।

आरपीः क्या आप इस बारे में अधिक बता सकते हैं कि आपने स्क्रिप्ट कैसे विकसित की?

पीवीः मेरा फिल्म बागान का एक आदर्श वाक्य ट्रॉट्स्की का है, जिन्होंने कहा था कि क्रांति की सेवा के लिए किसी रचनात्मक कार्य के लिए यह कला का सच्चा कार्य होना चाहिए। इसका मतलब यह है कि मेरी स्क्रिप्ट सिनेमाई होनी चाहिए।

बिजली कटौती, गैस और ईंधन की कमी और राजनीतिक घटनाक्रमों को लेकर आपका एक खुद का गुस्सा होता है- और जब मैं लिख रहा था तो इन चीजों को लेकर मैं बहुत प्रभावित था- लेकिन आपके अंदर कुछ केंद्रीय तस्वीरें पहले से ही ज़हन में होना ज़रूरी है। स्वाभाविक है कि आपको अपने क़िरदार गढ़ने होंगे, उन सबके प्रति ईमानदार होने की कोशिश करनी होगी और अलग अलग नज़रिए को शामिल करने से हिचकना नहीं चाहिए, लेकिन हमेशा याद रखें कि आप अपने दर्शकों से तस्वीरों के माध्यम से बात कर रहे हैं।

जब आप फ़िल्म बना रहे होते हैं, आप हर क़िरदार के सच को बाहर ला रहे होते हैं और उनके मनोगत नज़रिए से एक वस्तुगत सच्चाई स्थापित करते हैं। यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण है। 'पैराडाइज़' महज 90 मिनट लंबी है और इसीलिए यह बहुत सघन है और बहुत न्यूनतम संसाधनों में है और इसलिए मुझे उम्मीद है कि यह बहुत असरदार होगी।

आरपीः शूट के दौरान क्या आपने स्क्रिप्ट में कई सारे बदलाव किए?

पीवीः ऐसा नहीं है, लेकिन मैंने सिनेमैटोग्राफर राजीव रवि के साथ बहुत जुड़कर काम किया, जो सामाजिक रूप से बहुत जागरूक व्यक्ति हैं। वो बहुत मददगार थे और हर क़िरदार और उनके आपसी रिश्ते से जुड़े सभी तरह के दृश्यों, भंगिमाओं, पलों और बारीकियों को लाने में सक्षम थे। मैं चाहता था कि दर्शक कहानी के अंदर जाएं और किसी भी चीज़ को मिस न करें क्योंकि यह कहानी तीन या चार दिन के अंदर घटित हुए समयांतराल की है।

आरपीः शूट कितना लंबा चला था?

पीवीः जनवरी 2023 में शुरु हुआ और 25 दिन तक चला था। श्रीलंका में महंगाई दर 64 प्रतिशत थी और इसलिए हमें फ़िल्म को बहुत व्यवस्थित और बहुत तेज़ी से शूट करना था।

आरपीः हालांकि संवाद कम हैं, लेकिन कई दिलचस्प और खुलासा करने वाले संवाद हैं। पुलिस स्टेशन में भारतीय जोड़े, सार्जेंट बंडारा और मिस्टर एंड्र्यू के बीच का संवाद और बाद में होमस्टे के स्टाफ़ के दो सदस्यों के साथ उस जोड़े का संवाद बहुत दिलचस्प है। क्या इसके बारे में कुछ बताएंगे?

पीवीः हां, संवाद कम हैं, लेकिन ये मेरी निजी स्टाइल नहीं है। मुख्य बात है क़िरदारों के निजी अनुभवों को बाहर लाना और इस फ़िल्म में इन क़िरदारों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा की राजनीति को खोलना।

केसव (रोशन मैथ्यू) और अमृता (दर्शना राजेंद्रन), मिस्टर मैथ्यू (श्याम फ़र्नांडो) और सार्जेंट बंडारा (महेंद्र परेरा) एक स्थानीय पुलिस स्टेशन में। (फ़ोटोः पैराडाइज़) [Photo: Paradise]

भारतीय जोड़ा आपस में अंग्रेज़ी और मलयालम में बात करता है, लेकिन जब वे नौकरों से कोई बात छुपाना चाहते हैं तो मलयालम में बात करते हैं।

जब केसव सार्जेंट बंडारा से बात करता है तो अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करता है। बंडारा थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी जानता है और वो ये भी जानता है कि उसे धमकाया जा रहा है और नीचा दिखाया जा रहा है। क़िरदारों द्वारा जिस तरह भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, यह सत्ता के ढांचे और रिश्तों को दिखाने का एक तरीक़ा है।

आरपीः आप डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस के नियमित पाठक हैं। क्या इसके बारे में कुछ कह सकते हैं, और क्या इसका कला और संस्कृति के बारे में विश्लेषण आपके कलात्कम नज़रिए को दिशा देता है?

पीवीः यह अच्छा सवाल है। मैं 1999 से ही डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस का पाठक रहा हूं, लेकिन मैं पहले फ़िल्मों के बारे में लेखों पर बात करूंगा और फिर राजनीति के बारे में।

डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस की समीक्षा आपको एहसास दिलाती है कि आप अकेले नहीं हैं, कि अभी भी कुछ लोग हैं जो लोगों को सिनेमा को बेहतर और गहराई से और इसके इतिहास के साथ समझाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

मैं केवत इतना ही नहीं कहूंगा कि डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस एक मार्क्सवादी विश्लेषण उपलब्ध कराती है, जोकि स्वाभाविक है कि यह करती ही है, लेकिन सिनेमा के इतिहास और समीक्षाओं पर इसके लेख और कलाकारों को जो ये दिशा देती है, वो अनोखा है। इस तरह की सामग्रियां कोई नहीं प्रकाशित करता। जब भी मेरे पास समय होता है, मैं पीछे जाता हूं और कॉमरेड वॉल्श की 'द स्काई बिटविन द लीव्स' के पन्नों को दुबारा पटलता हूं, जिसमें बहुत क़ीमती अंतर्दृष्ठि होती है और यह एक ऐसी क़िताब है जिसे मैं अपना सबसे बेशक़ीमती उपहार मानता हूं।

कुछ लोग कहते हैं कि हम निराशा के दौर में जी रहे हैं, या कम से कम कुछ कलाकार ग़ज़ा या यूक्रेन में जंग को लेकर जैसी प्रतिक्रिया देते हैं। वे जुनूनी हो जाते हैं और कहते हैं कि कोई भविष्य नहीं हैं, यह नज़रिया उन्हें आख़िरकार मौजूदा हालात को स्वीकार करने की ओर ले जाता है।

फ़िल्म फ़ेस्टिवल में एक ज्यूरी मेंबर के रूप में काम करते हुए मैंने बहुत सी निजी फ़िल्में देखी हैं, जो दुर्भाग्य से कोई भी वस्तुगत सच्चाई सामने ला पाने में असफल होती हैं।

असल में, कलाकारों के कुछ दायरे नहीं मानते हैं कि वस्तुगत सच्चाई जैसी भी कोई चीज़ होती है। उनका काम आम तौर पर आत्मतुष्टि वाला या दिखावे वाला होता है। हो सकता है कि वे किसी ख़ास व्यक्ति या क़िरदार की मनोदशा को समझने की कोशिश कर रहे हैं, और मैं ये नहीं कह रहा कि उन्हें ये नहीं करना चाहिए, लेकिन आप किसी व्यक्ति को तभी समझ सकते हैं जब आप उस दुनिया और सामाजिक रिश्तों को समझते हैं, जिसमें वे रहते हैं।

आरपीः आप फ़िल्म डायरेक्टर कैसे बने और आज श्रीलंकाई फ़िल्म निर्माता किन हालात का सामना कर रहे हैं?

पीवीः श्रीलंकाई फ़िल्म निर्माता आज एक मुश्किल घड़ी का सामना कर रहे हैं और अर्थव्यवस्था के धाराशाई होने की घटना ने इसे और बदतर बना दिया है।

अक्सर फ़िल्म स्क्रीनिंग के अंत में मुझसे पूछा जाता है कि मैं कैसे बचा रह गया। मैं कभी किसी फ़िल्म स्कूल नहीं गया, क्योंकि श्रीलंका में ऐसी कोई चीज़ नहीं है और अभी भी नहीं है, लेकिन मैं फ़िल्मों का दीवाना हूं और स्नातक तक पढ़ाई की है। मैंने जीन रेनॉयल, फ़्रिट्ज़ लैंग, मार्सेल कार्ने और उनकी 'द चिल्ड्रेन ऑफ़ पैराडाइज़', आइजेंस्टीन की सोवियत फ़िल्में, जॉन फ़ोर्ड की फ़िल्में और अन्य कई फ़िल्में देख रखी हैं, जिसमें 1974 की वे महान फ़िल्में भी शामिल हैं, जिनकी समीक्षा डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस ने हाल ही में की थी।

मैं अब्राहम पोलोंस्की जैसे फ़िल्म निर्माताओं के बारे में भी सोचता हूं, जो मैकार्थी के ज़माने में अपने सिद्धांतों और अपनी कला के लिए अमेरिका में सीना तान कर खड़े रहे।

फ़िल्म निर्माताओं को वो मशाल आगे ले जाने की ज़रूरत है, जो महान निर्देशकों ने विरासत में दिया है, इसीलिए फ़िल्म निर्माताओं और अन्य कलाकारों को डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस और इसके राजनीतिक विश्लेषणों और समीक्षाओं को पढ़ने की ज़रूरत है।

'पैराडाइज़' की स्क्रीनिंग भारत, यूरोप, पश्चिम एशिया, ऑस्ट्रेलिया, और कुछ अमेरिकी देशों के अलावा कई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवलों में भी की जा रही है। जुलाई में इसके रिलीज़ होने के बाद, श्रीलंकाई सिनेमाघरों में भी 25,000 से अधिक लोगों ने इसे देखा है। यूनिवर्सिटी छात्रों के बीच और इस द्वीप के चाय बागानों में भी इसकी स्क्रीनिंग की योजना चल रही है। भारत में यह अमेजॉन प्राइम और सिम्प्ली साउथ पर इस समय उपलब्ध है। इस महीने के अंत तक यह ब्रिटेन और आयरलैंड में स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म चैनल 4 भी मौजूद होगी।

Loading