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भारतीय चुनाव में भारी हार के बाद मोदी और उनकी हिंदू बर्चस्ववादी बीजेपी सत्ता में बनी रही

यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख Modi and his Hindu supremacist BJP cling to power after major Indian election losses का है, जो मूलतः 4 जून 2024 को प्रकाशित हुआ थाI

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी हिंदू बर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), भारत के आम चुनावों में भारी उलटफेर झेलने के बाद सत्ता में जा रहे हैं।

19 अप्रैल को शुरू होकर, सात चरणों में कराया गया चुनाव, चार जून को मतगणना के साथ सम्पन्न हुआ, जिसके अंतिम नतीजे अभी आना बाकी हैं। हालांकि ये निश्चित है कि 2014 और 2019 में एक के बाद एक बहुमत से जीतने वाली बीजेपी, 543 सीटों वाली लोकसभा में 272 के बहुमत के आंकड़े से लगभग 30 सीटें पीछे रह जाएगी।

अब इसका शासन नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) के इसके सहयोगियों पर निर्भर है। बीजेपी और एनडीए की अंतिम टैली 290 से 296 के बीच होगी। यह 2019 में मिली 353 सीटों से बहुत दूर है और मोदी और उनके दाहिने हाथ गृहमंत्री अमित शाह के उस दावे से तो बहुत पीछे है जिसमें उन्होंने चुनाव प्रचार शुरू करते हुए एनडीए गठबंधन के 400 सीटों से अधिक जीतने का खम ठोंका था।

मंगलवार, 4 जून, 2024 को नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) मुख्यालय पहुंचने पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थकों द्वारा स्वागत किया गया। [एपी फोटो/मनीष स्वरूप] [AP Photo/Manish Swarup]

सबसे दिलचस्प तो ये है कि एनडीए को सबसे भारी नुकसान बीजेपी के गढ़ में हुआ। एनडीए में सबसे प्रमुख सहयोगी को 2019 के मुकाबले 60 सीटें कम मिलीं। इस बीच एनडीए के सहयोगी दलों ने प्रभावी तरीक़े से लाभ और नुकसान को बराबर कर दिया।

कांग्रेस पार्टी के अगुवाई वाले विपक्षी चुनावी ब्लॉक इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस या इंडिया 230 से अधिक सीटें जीतती दिख रही है।

इसने बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, भयंकर भुखमरी, अभूतपूर्व रूप से बढ़ती ग़ैर बराबरी और आय असमानता, मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों पर बीजेपी के अत्याचार और राजनीतिक विरोधियों पर इसके दमन के ख़िलाफ़ उपजे व्यापक ग़ुस्से को लेकर बहुत सावधानीपूर्वक और पूरी तरह लोकलुभावन अपील की।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी, जो भारतीय प्रधानमंत्रियों के बेटे, पोते और पर पोते हैं, ने लगातार मोदी पर, भारत और एशिया के सबसे अमीर और दूसरे सबसे अमीर अरबपतियों क्रमशः मुकेश अंबानी और गौतम अडानी के साथ उनके क्रोनी कैपलिस्ट (याराना पूंजीवादी) रिश्ते के लिए लगातार हमला बोला।

30 से अधिक पार्टियों वाले बिखरे हुए इंडिया गठबंधन का मकसद, पूंजीपति वर्ग को मोदी और धुर दक्षिणपंथी बीजेपी की जगह एक दक्षिणपंथी सरकार का विकल्प देना है। बड़े उद्योगपतियों के प्रति मोदी शासन की तुलना में यह गठबंधन कम कृतज्ञ नहीं होगा और उसी की तरह यह गठबंधन भी निवेश समर्थक “सुधारों” के मार्फ़त मज़दूरों के शोषण को बढ़ाने और भारत की विदेश नीति का अहम केंद्र बन चुके चीन विरोधी भारत-अमेरिकी रणनीतिक साझेदारी को लेकर प्रतिबद्ध है।

हाल फिलहाल तक राष्ट्रीय सरकार में पूंजीपति वर्ग की पसंदीदा पार्टी कांग्रेस हुआ करती थी। अब उसी कांग्रेस की अगुवाई वाला इंडिया गठबंधन दो दर्जन से अधिक जातीय-क्षेत्रीय और जातिवादी पार्टियों से मिलकर बना है, जिसमें कई तो पहले बीजेपी की सहयोगी रहीं, जैसे महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे गुट की फ़ासीवादी शिव सेना। इसमें दो स्टालिनवादी संसदीय पार्टियां, उनकी लेफ़्ट फ़्रंट सहयोगी पार्टियां और माओवादी सीपीआई (एमएल) भी शामिल हैं।

अपने घटक दलों के दक्षिणपंथी रिकॉर्ड को देखते हुए, इंडिया गठबंधन की ओर से बीजेपी का एक प्रगतिशील, सेक्युलर और जन समर्थक विकल्प देने के उसके दावे में दम नहीं है और इसमें कोई शक नहीं कि कई लोगों द्वारा इसे ऐसे ही देखा गया था। फिर भी, भारतीय मज़दूरों और मेहनतकश जनता का एक बड़ा हिस्सा मोदी सरकार के प्रति अपना विरोध जताने के लिए उसके साथ खड़ा हुआ प्रतीत होता है और ये सब एक विशाल प्रचार अभियान से हुआ, जिसे कार्पोरेट मीडिया ने भी हाथों हाथ लिया, ताकि जनता को इस दावे के साथ डराया जा सके कि मोदी और बीजेपी अपने लोकप्रिय समर्थन की लहर पर सवार होकर ऐतिहासिक जीत की तरफ़ जा रही है।

कांग्रेस को 2019 में ऐतिहासिक रूप से सबसे कम 19.5% वोट प्रतिशत हासिल हुआ था। इस बार इसमें से 1.7 प्रतिशत की वृद्धि के साथ इसकी वोट साझेदारी 21.2 प्रतिशत हो गई, बावजूद कि इसने अपने इंडिया सहयोगियों के मुकाबले 80 कम सीटों पर उम्मीदवार खड़ा किया था। ताज़ा अनुमानों के अनुसार, इसे 99 सीटें मिलेंगी, जोकि 2014 (44) के मुकाबले दोगुनी से भी अधिक और 2019 (52) के मुकाबले लगभग दोगुनी हैं।

मंगलवार को दोपहर बात करते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दावा किया है कि विरोधियों को परेशान करने, लांछित करने और जेल भेजने के लिए ख़ुफ़िया और पुलिस एजेंसियों और न्यायपालिका का इस्तेमाल करके चुनावों में धांधली करने की बीजेपी सरकार की कोशिशों को देखते हुए देश ने “संविधान बचाने” के लिए वोट किया था।

उन्होंने घोषणा किया कि, “देश ने कह दिया है कि हम मोदी और अमित शाह को नहीं चाहते।” गांधी ने एलान किया कि इंडिया के नेता विचार विमर्श करने के लिए बुधवार को राजधानी दिल्ली में मिलेंगे कि जब संसद की बैठक बुलाई जाएगी तो सरकार बनाने का दावा पेश करना है या नहीं।

संभावना है कि बाद का बयान चुनाव बाद की बयानबाज़ी से अधिक कुछ नहीं है। बीजेपी इन चुनावों में घायल होकर निकली है। इसने मोदी के चारो ओर जो प्रिय ‘हिंदू हृदय सम्राट’ और ‘पवित्र पुरुष’ की छवि गढ़ी थी, उसे झटका लगा है। फिर भी भारतीय सत्ताधारी वर्ग का प्रभावशाली तबका अभी भी मोदी और उनकी बीजेपी को सबसे निष्ठुर मानता है और इसलिए वो भारी विरोध के बावजूद उसे आने वाले समय में सार्वजनिक खर्चों में कटौती, निजीकरण, नियमों में ढील देने और अन्य “निवेश समर्थक” सुधारों को अंजाम देने वाला सबसे बेहतरीन हथियार और वैश्विक मंच पर अपनी महाशक्ति बनने की इच्छा को पूरा करने वाला मानता है।

उनमें से कुछ बीजेपी की 'ज़्यादातियों' पर हाथ मल सकते हैं और चिंतित हो सकते हैं कि इसका हिंदू बर्चस्ववाद, विरोध को भड़काता है और भारतीय राज्य की संस्थाओं को अस्थिर कर सकता है। लेकिन नीचे से आने वाले ख़तरों से डरा हुआ पूंजीपति वर्ग, भयंकर ग़रीबी और सामाजिक ग़ैरबराबरी को लेकर उभरे जनता के गुस्से और हताशा को प्रतिक्रियावादी और विभाजनकारी लाइनों पर मोड़ने के लिए, लंबे समय से साम्प्रदायिक और जातिवादी एजेंडे को लागू कर रहा है।

चीन विरोधी भारत-अमेरिकी रणनीतिक साझेदारी

इस चुनाव में सबसे हैरान कर देने वाली बात थी अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा शुरू किए गए वैश्विक युद्ध पर किसी भी प्रकार का बहस न होना। यूक्रेन को लेकर रूस के साथ नेटो द्वारा भड़काया गया युद्ध, ग़ज़ा में फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ साम्राज्यवाद समर्थित जनसंहार और चीन के ख़िलाफ़ वॉशिंगटन की सैन्य-रणनीतिक आक्रामकता- ये तीन मुख्य मोर्चे हैं।

इस युद्ध में भारत वॉशिंगटन के लिए महत्वपूर्ण मदद मुहैया करा रहा है, ख़ासकर चीन को रणनीतिक रूप से घेरने और इसके आर्थिक उभार को नाकाम करने के लिए। मोदी के नेतृत्व में भारत अमेरिका की अग्रिम चौकी वाला देश बन चुका है। भारत अमेरिका और एशिया प्रशांत में उसके मुख्य सहयोगियों जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय और चतुष्कोणीय सैन्य रणनीतिक साझेदारियों के मार्फ़त वॉशिंगटन के साथ और मज़बूती से बंध गया है। अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रेंच और जापानी पोतों के लिए अब भारत के बंदरगाह नियमित रूप से मरम्मत और ईंधन भरने के लिए खुले हैं।

मध्यपूर्व में फिर से शक्ति संतुलन बनाने के अमेरिकी स्कीम में भारत बहुत गहराई में धंस गया है। यह आईटूयूटी (इंडिया इसराइल, अमेरिका, यूएई) गठबंधन का हिस्सा है, जिसे वॉशिंगटन युद्ध, कूटनीतिक साज़िश और बुनियादी ढांचे के विकास के मार्फत एक 'मध्यपूर्व आर्थिक कॉरिडोर' में बदलना चाहता है ताकि ईरान को कमज़ोर बनाया जा सके और दबाया जा सके और इस क्षेत्र में रूस और चीन के प्रभाव को काउंटर किया जा सके।

हालांकि रूस के साथ रणनीतिक संबंध तोड़ने की अमेरिका की मांग के आगे नई दिल्ली ने अभी घुटने नहीं टेके हैं, लेकिन यह रूसी हथियारों पर निर्भरता कम करने के लिए वॉशिंगटन के साथ काम कर रहा है और वैश्विक स्तर पर वॉशिंगटन के साथ गठजोड़ को तेज़ कर दिया है। अधिक बुनियादी रूप से, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नई दिल्ली अमेरिकी साम्राज्यवाद को जो समर्थन मुहैया करा रही है, वह अमेरिका को हर जगह वैश्विक दबदबे के लिए अपने अभियान को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। पिछली गर्मियों में भारतीय सेना ने कहा था कि वह पेंटागन की एक अर्जेंट अपील का जवाब दे रही है कि अगर ताइवान को लेकर अमेरिका चीन में युद्ध हो जाए तो अमेरिका को वो क्या मदद मुहैया कर सकती है।

फिर भी लोकतंत्र में दुनिया के सबसे बड़े चुनाव के रूप में जिसे प्रचारित किया गया, उसमें इन सबमें कोई भी बहस का मुद्दा नहीं था।

अभी तक भारत की विदेश नीति पर जो भी बहस हुई, वो आम तौर पर चीन के प्रति मोदी के 'अधिक नरम रुख़' को लेकर कांग्रेस पार्टी के हमले के ईर्द गिर्द सीमित रही। यह स्थिति तब है जब पिछले चार सालों से भारत और चीन के बीच हिमालयी क्षेत्र में सीमा पर सैन्य तनाव चल रहा है और मोदी सरकार ने अग्रिम मोर्चे पर दसियों हज़ार सैनिक, टैंक और युद्धक विमान तैनात किए हैं।

भारत अमेरिकी रणनीतिक साझेदारी और फैल रहे वैश्विक युद्ध में भारत की भूमिका पर चुप्पी की साज़िश के पीछे दो कारण हैं। पहला, भारतीय शासक वर्ग और उसके सभी राजनीतिक दल अमेरिकी साम्राज्यवाद के झांसे में आकर भारत को एक महान शक्ति में बदलने की सनकभरी रणनीति के पीछे खड़े हैं क्योंकि वह आक्रामकता और वैश्विक युद्ध के माध्यम से अपनी आर्थिक पतन की भरपाई करना चाहता है।

दूसरे, वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि भारतीय जनता के बीच साम्राज्यवाद विरोधी भावना छिपी हुई है और उन्हें डर है कि अगर मज़दूर वर्ग और उत्पीड़ित मेहतनकश जनता को ये पता चल जाएगा कि भारत को किस हद तक अमेरिकी साम्राज्यवाद के क्षत्रप में बदला जा रहा है और इससे इस क्षेत्र और दुनिया के लोगों के लिए क्या ख़तरा होगा, तो यह भावना और तीखी हो जाएगी।

इन सबमें विशेष तौर पर ख़तरनाक भूमिका जुड़वां स्टालिनवादी पार्टियों द्वारा निभाई जा रही है- कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) या सीपीएम और पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (सीपीआई) और माओवादी सीपीआई (एम-एल)। वे भारत-अमेरिकी रणनीतिक गठबंधन के विरोधी होने का दावा करते हैं। लेकिन इंडिया के अपने सहयोगियों को शर्मिंदा न करने और इससे भी महत्वपूर्ण बात कि अमेरिकी साम्राज्यवाद का साथ देने वाले अपने सहयोगियों के साथ उनकी साझेदारी के प्रति मज़दूर वर्ग का विरोध न बढ़े, इसलिए वे अपने 'विरोध' को महज कुछ मौकों पर कभी कभार होने वाली प्रेस विज्ञप्तियों तक सीमित रखते हैं। इन्हीं कारणों से स्टालिनवादियों ने पिछले नवंबर में ग़ज़ा के फ़लस्तीनियों पर इसराइली हमले के ख़िलाफ़ बहुत देर से बुलाए गए विरोध प्रदर्शन को भी रद्द कर दिया।

एक और महत्वपूर्ण सवाल जिसे चुनावी प्रचार अभियानों से दूर रखा गया- कोविड-19 महामारी के दौरान 'ज़िंदगियों को बचाने पर मुनाफ़े को तरजीह' देने वाली भारत की विनाशकारी नीति। आधिकारिक रूप से भारत ने स्वीकार किया है कि कोविड-19 से पांच लाख 33,000 मौतें हुईं, लेकिन जितने बड़े पैमाने पर मौतें हुईं, असली आंकड़ा दस गुना अधिक है। महामारी ने मेहनतकश लोगों की भलाई और सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति मोदी सरकार की घोर उदासीनता को उजागर कर दिया। लेकिन विपक्ष ने इस पर एक शब्द नहीं बोला, जैसे भारत की महामारी नीति के लिए वे भी पूरी तरह ज़िम्मेदार थे। उन राज्यों में जहां उनकी सरकारें थीं, उसने लोगों को काम पर लौटने के लिए दबाव डाला जबकि वायरस संक्रमण जंगल में आग की तरह फैल रहा था।

मोदी सरकारः भयंकर संकट की सरकार

जैसा की डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस ने पहले भी नोट किया था, इस बात के संकेत थे कि सात चरणों वाला चुनाव जैसे जैसे आगे बढ़ता गया, बीजेपी इसके नतीजों को लेकर चिंतित हो गई। मतदान के पहले चरण के बाद बीजेपी ने आर्थिक विकास के अपने वायदों और आर्थिक वृद्धि दर के मामले में भारत के 'दुनिया को पीछे छोड़ने' और दुनिया में भारत के बढ़ते प्रभाव के जश्न मनाने वाले दावों से पल्ला झाड़ लिया। इसकी बजाय मोदी, शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और इसके स्टार प्रचारकों ने सबसे प्रतिक्रियावादी और ज़हरबुझे साम्प्रदायिक बयानबाज़ियों पर अपना पूरा ज़ोर लगा दिया। इसमें ये भी दावा शामिल था कि विपक्षी पार्टियां भारत की माओं और बेटियों की संपत्ति को चुराना चाहती हैं ताकि उसे 'घुसपैठियों', 'जिहादियों' और 'अधिक बच्चा पैदा करने वालों' को दिया जा सके- ये सब मुस्लिमों को लिए कोड वर्ड थे।

यह उलटा पड़ गया प्रतीत होता है। बीजेपी के परंपरागत गढ़ माने जाने वाले उत्तर भारत के हिंदी बेल्ट के कई राज्यों में उसे भारी नुकसान हुआ। ख़ासकर भारत के सबसे घनी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में यह प्रत्यक्ष था, जहां मोदी के शिष्य हिंदू पुजारी और आपराधिक तौर पर मुस्लिम विरोधी हिंसा भड़काने वाले योगी आदित्यनाथ ने लोहे के हाथों वाला शासन किया है। यूपी में बीजेपी-एनडीए को 26 सीटों का नुकसान हुआ और वोट प्रतिशत में 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई।

हारने वाले बीजेपी सांसदों में फ़ैज़ाबाद (अयोध्या) के भी उम्मीदवार शामिल थे जहां 16वीं शताब्दी की बनी बाबरी मस्जिद को 30 साल पहले बीजेपी और आरएसएस के सहयोगी संगठनों द्वारा जुटाई गई कट्टरपंथी भीड़ द्वारा ढहाकर मिथकीय हिंदू भगवान राम का मंदिर बनाया गया है। जनवरी में मोदी ने इस मंदिर का उद्घाटन टेलीविज़न पर प्रसारित एक भव्य तमाशे के माध्यम से किया था जिसका मकसद था बीजेपी के चुनाव प्रचार की शुरुआत करना और एक 'हिंदू राष्ट्र' के रूप में भारत के 'पुनर्जन्म' का संदेश देना।

तथाकथित वामपंथी पार्टियों समेत, इस चुनाव में जो ताक़तें शामिल थीं उनके दक्षिणपंथी चरित्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय चुनाव, बीजेपी और वास्तव में पूरी तरह सड़ चुके भारतीय पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनता के गुस्से के इजहार की जगह एक फीका और अत्यधिक विकृत संकेत ही दे सका। हालिया सालों में मजदूर वर्ग के असंख्य तीखे संघर्ष देखने को मिले, जिसमें ऑटोवर्कर, महाराष्ट्र स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कमिशन (एमएसआरटीसी) वर्कर्स, अध्यापक और स्वास्थ्यकर्मी, किसान प्रदर्शन और लगातार हुई विशाल एक या दो दिवसीय आम हड़तालें शामिल हैं। लेकिन इन संघर्षों को ट्रेड यूनियनों द्वारा व्यवस्थित तरीक़े से अलग थलग कर दिया गया और उन्हें स्टालिनवादी सीपीएम और सीपाआई द्वारा बीजेपी विरोधी पूंजीवादी विपक्ष के पल्ले बांध दिया गया।

चुनावों ने ये दिखा दिया है कि अजेय होना तो दूर, मोदी सरकार भयंकर संकट की सरकार है जो राजनीतिक और सामाजिक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठी है।

लेकिन साम्प्रदायिकता, मेहनतकश लोगों के सामाजिक और लोकतांत्रिक अधिकारों पर फिर से चुनी हुई बीजेपी सरकार के नए हमले और अमेरिकी साम्राज्यवादी वैश्विक युद्ध में भारत को इस्तेमाल करने की सत्ताधारी वर्गों की चाल को हराने के लिए मज़दूर वर्ग को अपने संघर्षों को एकजुट करना होगा और भारतीय पूंजीवाद और इसके सभी राजनीतिक प्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ अपनी स्वतंत्र वर्गीय ताक़त इकट्ठी करनी होगी।

स्टालिनवादी सीपीएम और सीपीआई, माओवादी और उनसे संबद्ध ट्रेड यूनियनें, वर्ग संघर्ष को दबाते हुए इंडिया गठबंधन के साथ मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से अधीन करने के लिए मोदी के बुर्जुआ विरोध के फिर से उपस्थित हो गए मौके का इस्तेमाल करना चाहेंगी। इन कोशिशों के ख़िलाफ़, मज़दूर वर्ग को स्थायी क्रांति की ट्रॉट्स्कीवादी रणनीति के आधार पर एक नया रास्ता अख़्तियार करना चाहिए, जिसने 1917 की अक्टूबर क्रांति और उसके राष्ट्रवादी-स्टालिनवादी पतन के खिलाफ संघर्ष को गति दी थी, जिसकी परिणति पूंजीवाद की बहाली और यूएसएसआर के विघटन में हुई।

मज़दूर वर्ग को मज़दूरों की सत्ता की लड़ाई और समाजवाद के लिए वैश्विक मज़दूर वर्ग के विकास के लिए ग्रामीण मेहनतकशों को अपने साथ लाना होगा। सामाजिक समानता और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की लड़ाई को साम्राज्यवादी युद्ध और भारत-अमेरिकी रणनीतिक गठबंधन के ख़िलाफ़ लड़ाई से जोड़ा जाना चाहिए।

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